राजकुमार सोनी के लिए
कहानी शुरू हो इससे पहले ये तफसील जरूरी है...
पिछले दस बरसों में जितना बदला है यह देश उतना शायद कभी नहीं।
बदलाव एक प्रक्रिया है, चलती रहती है, चलती रहनी चाहिए। लेकिन इन सालों में देश ने जो छलाँग लगाई है वह अभूतपूर्व है - इसे ही उत्तर-आधुनिक स्थिति बता रहे हैं उत्तर-आधुनिक चिंतक। महानगरीय संस्कृति अब सिर्फ महानगरों की बपौती नहीं रही, वह तमाम गाँवों-कस्बों तक फैल चुकी है - वाया मीडिया और वाया भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण। सिर्फ टीवी या अखबार रंगीन नहीं हुए, उनकी रंगीनी भारतवर्ष में चहुँ ओर बरसने लगी है - नए लोग, नए विचार, नई टेक्नालाजी, नई भाषा, नई नैतिकता... गरज कि सब कुछ में एक ऐसा नयापन भर गया है जो नए आकर्षक गिफ्ट पैक सा हो चला है। यानी जीवन की तमाम जगहों से सादगी को मंच से धकेलकर चकाचक वैभव और ग्लैमर काबिज हो गया है। ग्लोबलाइजेशन की चमक से चकाचौंध!
जब यह सारे मुल्क में हो रहा है तो जाहिर है मेरे इस छोटे शहर में भी हो रहा है। इस फैशन और बदलाव के तेजी से होने की वजह नगरवासी मीडिया वगैरह को तो मानते ही हैं, लेकिन एक और कारण मानते हैं जिसकी वजह से यह यहाँ दिन-दूनी रात चौगुनी के हिसाब से फैला। और वह है बी.आई.टी. यानी बाफना इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी का खुलना। इसका खुलना हुआ और नगर की हवा का फैशन से संक्रमित हो जाना हुआ। इस प्राइवेट संस्थान की पेइंग सीट पर जगह-जगह के रईसों के बेटे-बेटियों का आ जाना हुआ। इन बेटे-बेटियों ने अपनी चुस्त पोशाकों से इस सुस्त शहर की चाल बदल दी। शहर एकाएक उत्तर-आधुनिक होने लगा। ये अमीरजादे यहाँ की मंद हवा में बाजार की तूफानी हवा लिए दाखि़ल हुए - मोबाइल, मोटरसाइकिल, जींस, टॉप, पिज्जा, बर्गर, पेप्सी इत्यादि लिए हुए।
कुछ साल पहले खुले इस प्राइवेट इंस्टीट्यूट और उसके तथाकथित ब्रिलिएंट स्मार्ट छात्र-छात्राओं ने एक बार फिर प्रमाणित किया कि पैसा आता है तो अपनी संस्कृति भी साथ लाता है।
हुआ यह कि देखते ही देखते इस संस्थान के चारों ओर दुकानों और विज्ञापन होर्डिेग्स की बाढ़ आ गई - बिल्कुल बदले हुए अंदाज में, एम.टी.वी. स्टाइल में। विज्ञापन चाहे जूते का हो, चश्मे का हो, जींस का हो या कोल्ड ड्रिंक्स का - उन सबमें एक बात समान थी कि उनमें सारे पुरुष मॉडल्स कमर तक नंगे थे और लड़कियाँ महज चोली टाइप कुछ पहने थीं। अपने स्तनों की बनावट और कसावट में एक-दूसरे से होड़ लेती हुईं। आलम यह था कि देखने वालों की नजर उन चीजों या दुकानों के नामों पर नहीं, इनकी देह पर ठहर जाती थी और इन विज्ञापनों में पेश मुद्राओं की बात करें तो ये वात्स्यायन महाराज या खजुराहो के शिल्पियों की कल्पनाओं से भी परे थे - इस कदर हॉट। जूते के विज्ञापन में अपनी नंगी देह पर अजगर लपेटने वाली मधु सप्रे को तो आपने देखा होगा, यहाँ उससे होड़ लेती कामुक मुद्राएँ थीं।
यह हमारे चारों तरफ नग्नता, कामुकता, विकृतियाँ और भोगवाद फैलने का समय था - दुनिया का चाहे जो हो जाए... कोका कोला एंजॉय!
तो यह न्यू जनरेशन शहर को नई संस्कृति सिखा रही थी। लड़के-लड़कियों का पूरी आजादी से घूमना-फिरना, मौज-मजे करना, न्यू इयर या बर्थ-डे खर्चीले ढंग से सेलिब्रेट करना, और न जाने कहाँ के संत वेलेंटाइन के नाम पर वेलेंटाइन डे मनाना - महँगे गिफ्ट और कार्ड के साथ और उस संत के नाम पर खुलेआम छूट लेना...।
बी.आई.टी. की इन हरकतों पर काफी दिनों से मेरे पत्रकार दोस्त विक्रम ठाकुर की टेढ़ी नजर थी। 'अपसंस्कृति फैला रहे हैं ये साले बाजार के गुलाम! टपने भ्रष्ट माँ-बाप की हराम की कमाई पर ऐश करते ये नकारे घंटा इंजीनियर-डॉक्टर बनेंगे! सिर्फ अपना कैरिअर देखेंगे! और मौका मिलते ही उड़ जाएँगे न्यूयार्क, बोस्टन, वाशिंगटन - अपने आका के पास!'
विक्रम इनकी चर्चा होने पर अक्सर भड़क जाता था। लेकिन यह भड़कना लाल कपड़ा देखकर किसी साँड़ का भड़कना नहीं था, इसके पीछे हमारा यथार्थ था और हमारा भविष्य भी।
ठसलिए जैसे ही इस पैंतीस-छत्तीस वर्षीय अनुभवी पत्रकार को इनके खिलाफ कोई सबूत हाथ लगा, उसने इनकी इस संस्कृति पर हमला बोल दिया। जमके लिखा इस पर। असल में उसे बी.आई.टी. से संबंधित एक धाँसू और इंटेरेस्टिंग स्टोरी मिल गई, जिसके आधार पर उसने अपने चार पेजी सांध्य दैनिक 'कुरुक्षेत्र' के फ्रंट पेज पर रितिक, शाहरुख, करीना के इन दीवनों, उनकी हॉट एंड पॉप कल्चर को जी भरके कोसा, और उन्हें बाजारवाद का शिकार और उपभोक्तावाद का प्रवक्ता बताया।
स्टोरी की हेडिंग थी - 'नीना गुप्ता बनना चाहती है बी.आई.टी. की लड़की।'
खूब बोल्ड लेटर में।
खबर के मुताबिक बी.आई.टी. में पढ़ रही और गर्ल्स हॉस्टल में रह रही फाइनल इयर की एक स्टुडेंट (नाम उसने अपना व्यवसायिक हित साधने के लिए छुपा लिया था) ने ब्वायज हॉस्टल के वार्डन और प्रिंसिपल को एक एप्लीकेशन दिया है, जिसमें उसने अनुरोध किया है कि उसे अमुक छात्र के साथ उसके कमरे में रहने की अनुमति प्रदान की जाए। कि वह उससे बेहद प्यार करती है तथा अपनी मर्जी से उसके साथ रहना चाहती है।
यह सांध्य दैनिक अपनी इसी किस्म की धाँसू, सेंसेश्नल, धमाकेदार और मसालेदार खबरों के कारण लोकप्रिय और चर्चा में बना रहता था। बेशक जिसके पाठक बुद्धिजीवी क्लास के नहीं, बल्कि बहुत साधारण लोग थे जो सुबह-शाम चाय दुकानों, पान ठेलों या चौराहों में गपियाते मिल जाते है। 'कुरुक्षेत्र' में खबरें इन्हीं की माँग के मुताबिक होती है - यह बात विक्रम ठाकुर मुझे बता चुका है।
तो बहरहाल खबर। खबर को जायकेदार कैसे बनाया जाता है, इस कला में विक्रम माहिर है। लिहाजा बी.आई.टी. की लड़की वाली खबर ने सबको चौंकाया और मजा दिया। खबर में लड़की के होने भर से उसका स्वाद 'टेस्टी' हो जाता है, फिर यहाँ तो अत्यंत मॉडर्न और दुस्साहसी लड़की थी जो बिलासपुर के किसी कार्यपालन मंत्री की बेटी थी जो जबलपुर के एक प्राइवेट फर्म के मैनेजर के बेटे के साथ रहना चाहती है।
दूसरे दिन मेरा ऑफिस बंद था जहाँ मैं एकाउंट का काम देखता हूँ। वजह विपक्षियों द्वारा अपनी किन्हीं माँगों को लेकर प्रदेशव्यापी बंद का आयोजन। मेरी छुट्टी थी और मैं खाली था इसलिए विक्रम के पास उसके प्रेस चला आया - उससे मिलने और बधाई देने।
दोपहर के लगभग दो बजे का वक्त था। विक्रम अपनी टेबल पपर मिल गया।
इस समय दुर्ग ब्यूरो विक्रम और भिलाई ब्यूरो हरिमोहन सिन्हा टेबल पर आमने-सामने थे और बिल्कुल बच्चों की तरह झगड़ रहे थे बंद की खबर बनाने से बचने के लिए। उनके बीच तू बना-तू बना, तू देख-तू देख वाली लड़ाई थी।
विक्रम का कहना था अपने शहर में बंद जैसा कोई बंद नहीं है, जबकि भिलाई में बंद का अच्छा असर है, इसलिए तू बना, और हरिमोहन का मानना था कि भिलाई में भी बंद का खास असर नहीं है, चूँकि दुर्ग जिला केंद्र है और विक्रम यहाँ का ब्यूरो इसलिए यह समाचार उसे ही बनाना चाहिए।
अखबार के मालिक और संपादक श्रीवास्तव जी अपनी केबिन से उनके झगड़े का मजा लेते रहे। दोनों के नोक-झोंक की आदत पुरानी है, वे जानते थे।
आखि़रकार हरिमोहन को झुकना पड़ा।
विक्रम ने सुझाया - यार, एस.पी. को फोन लगाओ। वहाँ से डिटेल लो।
साँवले हरिमोहन ने अपनी अधपकी दाढ़ी खुजाई - अबे, अभी कहाँ मिलेगा साला एस.पी.? घूम रहा होगा जायजा लेते।
"अच्छा तो कंट्रोल रूम लगा। वहाँ से पूरी इनफार्मेशन मिल जाएगी।"
हरिमोहन ने कंट्रोल रूम का नंबर घुमाया। सी.एस.पी. माथुर मिल गए।
"हाँ-हाँ, सर, मैं 'कुरुक्षेत्र' से हरिमोहन सिन्हा बोल रहा हूँ। कहिए सर... क्या हाल है बंद का? कितने गिरफ्तार हुए? अच्छा... अच्छा...।"
सामने रखे किसी रद्दी कागज पर वह सुनते-सुनते लिखने लगा, ...हाँ सर... प्रदर्शनकारी कितने थे? भीड़ उग्र-वुग्र तो नहीं थी... क्या? लाठियाँ हवा में लहरानी पड़ीं? किधर? इंदिरा मार्केट के पास? कोई घायल-वायल? नहीं... अच्छा! और कोई महत्वपूर्ण सूचना हो तो बताइए... अच्छा-अच्छा...! हरिमोहन जोर से हँस पड़ा, 'ठीक है सर... थैंक्यू वेरी मच...!''
"क्या कह रहा था सी.एस.पी.?'' पूछा विक्रम ने।
"विपक्षियों की माँ-बहन एक कर रहा थ और कह रहा था इसे भी छाप देना।" फिर स्वतः बड़बड़ाया चलो यार, इत्ती जानकारी काफी है! कुछ तो कवर हो ही जाएगा...। और जैसे ही विक्रम से नजर मिली, चिल्लाया - "देख बेटा, तेरा काम मैं कर रहा हूँ। शाम को दारू पिलाना।"
"अरे तू बना तो प्रभु! दारू की क्या चिंता करता है... वो भी अपन के रहते!''
"लेकिन आज तो बंद रहेगा?'' मैंने उसे याद दिलाया।
"कोई बंद नहीं रहता, यार! सब चालू रहता है। धंधे का सवाल है बाबा!''
हरिमोहन समाचार बनाने में एकदम व्यस्त हो गया। भीतर प्रेस की खटर-पटर से बेखबर।
विक्रम ने मुझसे पूछा, "और क्या-क्या मार्केट है यार शहर में? मुझको तो ठीक-ठीक पता नहीं। काम पड़ता है तो ही ध्यान में आता है। सिन्हा, लिख ले यार, अपना मित्र बता रहा है...।"
मैं यहाँ के मार्केट के नाम बताने लगा। हरिमोहन ने इन्हें भी नोट कर लिया।
विक्रम बड़बड़ाया - कमाल है! यहाँ तो पूरा शहर ही बाजार बन गया है। जिधर देखो उधर बाजार। साला अति हो गई है। यई साला बाजारवाद है!
आगे उसने हरिमोहन को सुझाया - हेडिंग डाल देना - बंद आंशिक सफल।
मैंने इस पर ऐतराज किया, "अबे बिना देखे ही...?''
"और क्या?''वह जैसे मेरे अनाड़ीपन पर हँसा, "ऐसी खबरों में सब चलता है! कौन चूतिया गली-गली घूमकर अपना पेट्रोल जलाएगा फोकट में?''
हरिमोहन समाचार बनाने में व्यस्त हो गया।
मैंने विक्रम से कल की धाँसू स्टोरी और उसकी प्रतिक्रिया के बारे में पूछा।
"अर्रेऽऽ मत पूछ! बी.आई.टी. में तो इसको लेकर बड़ा तमाशा हो गया!'' वह काफी उत्साह से बताने लगा, "जैसे ही वहाँ के लौंडों को पता चला उनके इंस्टीट्यूट के बारे में छपा है, वो पाँच-पाँच दस-दस कापियाँ खरीद के ले गए - कल शाम को ही! वो कह रहे थे - बहुत अच्छा किया सर आपने। हम ये प्रतियाँ कॉलेज की दीवारों पर चिपकाएँगे।
"अच्छा।" मैंने पूछा, "और वो लड़का-लड़की पहुँचे जिनकी न्यूज है?''
"नहीं। अभी तक तो नहीं आए हैं, देखो शाम तक आ जाएँ तो आ जाएँ। वो आएँ तो अपने नोट-पानी का कुछ जुगाड़ हो!''
तभी ऑफिस के बाहर एक हीरो होंडा आके खड़ी हो गई। सवार आदमी वहीं खड़ा रहा धूप में यों ही।
हरिमोहन उसे देखकर मुस्कुराया और विक्रम से बोला, "देख, तेरा एक जुगाड़ तो आ गया!''
विक्रम ने उसे देखा और तुरंत उठ गया, "अब्भी आया दो मिनट में।"
विक्रम उस चालीसेक बरस के 'जुगाड़' के पास चला गया और उसे कुछ दूर एक पेड़ की छाँह में ले गया।
अपने केबिन से संपादक श्रीवास्तव जी तुरंत 'कौन आया है' की शंका जाहिर करते निकल आए और सामने की चेयर पर विराजमान।
समझते देर नहीं लगी कि यह शातिर और काइयाँ बुड्ढा श्रीवास्तव विक्रम की जासूसी करने निकला है - किससे क्या कमा रहा है विक्रम?
कुछ देर बाद विक्रम भीतर आया तो श्रीवास्तव जी ने बड़ी मुलामियत से पूछा, "कौन था विक्रम?''
"अपना बड़ा भाई था श्रीवास्तव जी।" विक्रम ने माजरा भाँपकर कुछ ऊँची आवाज में कहा।
संपादक ने मुस्कुराने और फिर आश्वस्त होने का घटिया अभिनय किया, "अच्छा, तो वो तुम्हारा बड़ा भाई था? तुमने बताया नहीं कभी?''
"अलग-थलग रहता है। कभी काम हो तो मिलने आ जाता है।"
श्रीवास्तव जी को अब भी भरोसा नहीं था क्योंकि जानते हैं विक्रम बड़ी हरामी चीज है। कब सच कहता है कब झूठ-पकड़ पाना काफी मुश्किल होता है। हालाँकि विक्रम अखबार के जरिए जो कमाता है उसका हिस्सा देता है। लेकिन फिर भी नजर तो रखनी ही पड़ती है।
"अच्छा, कैसे आया था?'' संपादक ने उसे और खोदा।
"घरेलू काम से आया था श्रीवास्तव जी, वो छोटे भाई के लिए कल लड़की देखने भिलाई जाना है, इसी की खबर देने आया था।"
विक्रम ने साफ झूठ कहा था जिसे संपादक भी जानते थे, मगर, प्रत्युत्तर में 'ठीक है-ठीक है' कहा और बड़े बेमन से अपने केबिन में दाखिल हो गए।
"क्यों, वह सच में तुम्हारा भाई था?'' मैंने पूछा।
"हाँ, कल ही उसके फर्जी मेडिकल इंस्टीट्यूट के बारे में छापा था, इसलिए आज लेकर पहुँचा था।" विक्रम ने अपनी जेब की तरफ इशारा किया।
मैं हँसा - साले अपने भाई तक को नहीं छोड़ता!
"भाई है तो क्या हुआ? विक्रम पहले जैसा ही गंभीर बना रहा, "अपन एक चीज जानते हैं, दुनिया भ्रष्टाचार से कमा रही है और अपन भ्रष्टाचारियों से कमाते हैं। कहाँ लगे हो यार तुम भी भाई-वाई!'' उसने जरा हिकारत से कहा, "ये भ्रष्ट लोग साले किसी के नहीं होते। अपना ये भाई शास्त्री नगर में एक फालतू छाप अल्टरनेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूट चलाता है, जो बेरोजगारों को-खासकर देहात के दसवीं-बारहवीं पास लड़कों को डॉक्टर बनाने का लालच देकर हजारों पीटता है। सब एकदम फर्जी! टोटल अवैध। इसकी डिग्री की कोई मान्यता नहीं है। भाई साब, आज लाखों से खेल रहा है वो! देखा नहीं कैसे ठाठ से हीरो होंडा में घूम रहा है! और अपन को देखो, अभी तक वही पुरानी लूना घसीट रहे हैं।"
"कितना दिया?'' मैंने सीधे पूछ ही लिया।
"आठ सौ।" मैंने हजार माँगा था, साले ने आठ सौ टिकाया।" विक्रम की एक खास बात है, अपने करीबी दोस्तों से वह कुछ भी नहीं छिपाता, मामला चाहे रुपयों का हो या लड़की का - उसकी इसी साफगोई के तो हम कायल हैं।
लिखना छोड़कर हरिमोहन सिन्हा ने मुझे बताया, "दो मर्तबा और छाप चुका है उसके बारे में।"
"हाँ।" विक्रम ने स्वीकार किया, "तुम यकीन नहीं करोगे इस पर, असल में तब मेरे को किसी नौकरी के लिए अप्लाई करने के लिए कुछ रुपयों की जरूरत थी। मैं गया इसके पास, पर साफ मना कर दिया इसने - जबकि पैसे थे इसके पास। जब नहीं दिया तो अपना भी भेजा फिर गया! उठा के छाप दिया इसके इंस्टीट्यूट की असलियत। जब छापा तो भागा-भागा आया और हजार रुपया दे गया। साला ये कोई भाई है! चार-छह महीने बाद फिर छाप दिया तो छह सौ दे के गया। तो अपन को जब-जब मनीराम की जरूरत होती है, छाप देते हैं। बड़ा सीधा मामला है।"
हरिमोहन ऊपरी तौर पर उसके भाई के साथ सहानुभूति जताते हुए बोला, "तुम यार बड़ा परेशान करते हों उसको। अच्छा आदमी है। बिचारा... देखो इतनी तेज घूप में दौड़ा-दौड़ा तुम्हारे पास आया था।"
"अरे काहे का बिचारा!'' उसने अपने भाई को गाली दी, "साला भोले-भाले गरीब बेरोजगारों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है, तुम ये नहीं देखते? सिर्फ चार साल में उसने इतना कमा लिया है कि उसके बाल-बच्चे कुछ न करें तो भी बैठे-बैठे खा सकते हैं! हम यार ऐसे भ्रष्ट लोगों के खिलाफ है। नगर के सारे भ्रष्ट लोगों की लिस्ट अपने पास है। इनका बस चले तो साले देश को बेच खाएँ!'' बोलते-बोलते विक्रम जैसे उखड़ गया, मूड खराब हो गया उसका।
हम लोगों के बीच एक सख्त चुप्पी घिर आई।
सिर्फ प्रेस मशीन की वही खटर-पटर वातावरण को बोझिल बना रही थी।
"चल यार," उसने सहसा मुझसे कहा, "चाय पीके आते हैं। बड़ी बोरियत हो गई इधर।"
हम निकल पड़े। चाय के लिए चौक तक हम पैदल ही गए। बमुश्किल पाँच मिनट का रास्ता था।
चौक में लगभग सभी दुकानें खुली थीं। बंद का वैसा कोई असर नहीं दिखता था। हम एक होटल में चले आए।
"देखो यार'', चाय पीते हुए वह कहने लगा, "ये बंद-वंद की न्यूज में कुछ नहीं धरा है। बेकार की भागा-दौड़ी है साली। कोई फायदा नहीं!'' उसका चेहरा इस काम के लिए गहरी विरक्ति से भर उठा। "तुमने देखा हरिमोहन को,'' उसने कहना जारी रखा, "देखा कैसे जी-प्राण एक करके लिख रहा है। मैं भी ऐसे ही लिखा करता था। आगे चलके समझ आया, इन आलतू-फालतू चीजों को कवर करने से तुम्हारा कुछ नहीं होने वाला। बस ऐसे ही लिखते रहोगे जिंदगी भर! भई, अपना वित्त मंत्रालय भी तो सुधरना चाहिए! इसलिए अब अपन खाली अपने इंटरेस्ट की चीजों पर ध्यान देते हैं - जिसमें कुछ संभावना हो, जिनसे कुछ-न-कुछ चसूला जा सके। अपन ने अब तय हर लिया है।"
चाय के दौरान मैं उसे सिर्फ सुनता रहा। चुपचाप। मैंने ध्यान दिया, उस समय उसकी आवाज एकदम खुली और साफ थी, और बिल्कुल ठोस - लोहे-सी खनकती हुई। यह आवाज आदमी के किसी फैसले पर पहुँचने से निकलने वाली आवाज थी - फैसला सही है या गलत, उचित है या अनुचित - इस द्वंद्व से दूर, निर्मम और किंचित क्रूर भी।
मैंने उससे कुछ नहीं कहा। उससे कुछ भी कहना अपनी उन्हीं बातों को उसके सामने फिर से दोहराना होता - जिनसे उसे आदर्शवा की बू आती है। और वह अपने उस फैसले पर पहुँच चुका था जो उसके अपने अनुभवों ने सिखाया है।
मैं यह भी जानता था कि सारी अच्छाइयों को अपना लेने के बाद भी उसका मालिक उसकी पंद्रह सौ रुपये महीने की पगार में एक रुपया नहीं बढ़ाने वाला।
हमें लौटे हुए कुछ ही समय बीता था कि वे दोनों आ गए।
वे दोनों यानी लड़का और लड़की।
पहले दनदनाते हुए दोनों संपादक की केबिन में घुस, वहाँ से तेज आवाज में जाने क्या-क्या बातें हुईं, वे गुस्से से तमतमाए अब विक्रम की टेबल के सामने थे।
"आप ही हैं विक्रम ठाकुर?'' लड़की की आवाज ही नहीं, पूरा शरीर काँप रहा था गुस्से से।
विक्रम शांत था, जैसे उसको इसका पूर्वानुमान हो। उसने एक नजर इन माडर्न लड़के-लड़की को देखा - अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि।
"जी हाँ, मैं ही हूँ। कहिए... मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?''
विक्रम के संयत लहजे और 'सेवा' शब्द ने उन्हें तिलमिलाया।
"देखिए... हम बी.आई.टी. से आए हैं... हम वही हैं जिनके बारे में आपने कल खूब ऊल-जलूल छापा है।"
"अच्छा! तो आप हैं मिस निधि सक्सेना!''
"ओह... यू नो मी। आपने ये क्या उल्टा-सीधा छापा है हमारे बारे में? आपकी इतनी हिम्मत कैसे हुई? पत्रकार हो गए इसका ये मतलब नहीं कि जो जी चाहा छाप दिया!'' लड़की बिफर पड़ी।
"देखिए, मैंने जो कुछ छापा है उसके मेरे पास ठोस सबूत हैं।" विक्रम बोला।
"कहाँ से लाए आप वो सबूत? किसने इन्फॉर्म किया?'' लड़का भी तैश में था।
"कित्ती इंसल्ट हो रही है इससे मेरी!'' लड़की अपने कंधे तक झूलते बालों को झटककर चीखने लगी, "मैं तुमको कोर्ट में घसीटूँगी। समझ क्या रखा है तुमने अपने आपको? सारे लड़के - बास्टर्ड तुम्हारा पेपर कॉलेज की दीवारों पर चिपकाते घूम रहे हैं। मैं तुमको छोड़ने वाली नहीं हूँ। हाउ डेयर यू राइट दिस बकवास?''
"तो ठीक है, जाइए आप कोर्ट में। यहाँ क्यों आई हैं?''
"वो तो जाऊँगी ही! तुमको कोई समझ नहीं है। हम आपस में प्रेम करते हैं... यू नो... वी लव इच अदर... और तुमने इसे मजाक की चीज बना दिया!'' लड़की का सुनहरी कमानी का चश्मा नाक की नोक तक खिसक आया था।
"सॉरी मैडम'', विक्रम ने कहा, "जिसे आप अपना प्रेम कह रही हैं, मेरी नजर में एक सौदेबाजी है, डीलिंग है।"
"व्हॉट? व्हॉट नानसेंस!''
लड़की एकदम बौखला गई, " व्हॉट डू यू मीन बाई दिस सौदेबाजी?''
"जी हाँ।" विक्रम उसी तरह बोल रहा था, "आप प्रेम नहीं, सौदा करती हैं। और ये लड़का भी प्रेम नहीं सिर्फ सौदा करता है। आपने अपने प्रेम के लिए इस लड़के को ही क्यों चुना? इसलिए कि यह मैनेजर का बेटा है, खूब रईस है, पैसे वाली पार्टी है! आपने किसी दूसरे को क्यों नहीं चुना...?''
"ये हमारा पर्सनल मामला है।" लड़के ने उसे टोकने की कोशिश की।
"हाँ, पर्सनल है। समझ रहा हूँ और इसकी पॉलिटिक्स भी समझ रहा हूँ। तो तुमने किसी और को क्यों नहीं चुना? और लड़के? गरीब लड़के? लेकिन गरीब तो प्यार के काबिल नहीं होते, क्यों?''
मैं विक्रम को देख जरूर रहा था किंतु समझ नहीं पा रहा था कि इसका कम्युनिस्ट एकाएक कैसे जाग पड़ा, और कैसे हावी हो रहा है इसका सर्वहारा का अधिनायकत्व?
लेकिन वह अपनी रौ में था, "तो तुम प्यार भी हैसियत देखकर करती हो जिससे मिले तुमको सुखी जिंदगी और सुरक्षित भविष्य! ये आपका प्रेम-वेम नहीं, सोचा समझा खेल है... एक वेल प्लान्ड बिजनेस है आपका प्रेम! समझीं?''
"आपको प्रेम की कोई समझ नहीं। आप कुछ नहीं समझते।" लड़की लगभग रोने लगी, "आपको किसी की भवनाओं की कोई कदर नहीं।"
"छोड़ो ये प्रेम की परिभाषा। काम की बात करो। विक्रम ने अपना दाँव अब फेंका। "चाहता तो मैं तुम दोनों के नाम दे सकता था, तुम्हारे माता-पिता का नाम दे सकता था। लेकिन मैंने बहुत सोच समझ के ऐसा नहीं किया।"
वे दोनों उसे हैरान होकर देखने लगे।
"चलिए, बाहर चलते हैं, खुली हवा में। खुली हवा में खुलकर बातें होंगी।" विक्रम उठा। उसने मुझे भी साथ ले लिया।
सचमुच भीतर काफी गर्मी और घुटन महसूस हो रही थी। बाहर जनवरी की ढलती हुई धूप थी - सुनहली, धीरे-धीरे साँझ की तरफ बढ़ती हुई।
हम चलकर फिर उसी होटल में पहुँच गए। इस बार धंधे के लिए।
हम होटल की कोने वाली टेबल पर थे। दूसरों से कुछ हटकर।
विक्रम ने यहाँ सीधे कहा, "देखो बंधु, ये किस्सा यहीं खत्म किया जा सकता है - अगर तुम चाहो। ये आपस की बात है - म्युचुअल अंडरस्टेंडिंग। और बता दूँ तुमको, उस आर्टिकल में तुम दोनों के बारे में सिर्फ एक पैरा लिखा है... चाहता तो बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा के, मिर्च-मसाला लगा के लिख सकता था... लेकिन मैंने ज्यादा फोकस तुम्हारे कॉलेज में पनपती नंगी आधुनिकता को किया है... वो वेलेंटाइन डे पर खुलेआम चुम्मा-चाटी गिफ्ट वगैरह... इस पर ज्यादा लिखा है मैंने।"
"आप ठीक कह रहे हैं, सर।" लड़के ने सहमति जताई।
"तो मेरी तरफ से डन! आगे से नहीं छपेगा तुम्हारे या तुम्हारे परिवार के बारे में। समझदारी से मामला यहीं निबटा दो।" विक्रम बोला।
लड़के के चेहरे से लगा, वह किसी असमंजस में फँसा है।
"कितना रुपया तुम लोग फालतू में खर्चा करते हो। हजारों फूँक देते हो। अब अपन तुम्हारे साथ सहयोग कर रहे हैं तो तुमको भी समझना चाहिए।"
लड़के ने एक बार लड़की की तरफ देखा, फिर कहा, "हम जरूर आपका सहयोग करते, सर... लेकिन अभी हम बहुत मुश्किल में हैं...।"
"कैसी मुश्किल?''
"आपको शायद इसका पता नहीं होगा... हम दोनों ने शादी कर ली है। अपने पैरेंट्स की मर्जी के खिलाफ।"
"अरेऽऽ? कब?'' अब विक्रम ने मुँह फाड़ लिया।
"अभी नवंबर में... दो महीने होने जा रहे हैं...। आपको इसका भी पता नहीं होगा कि हमें हमारे माता-पिता ने घर से निकाल दिया है... उन्हें ये शादी बिल्कुल पसंद नहीं।"
"ऐसा?''
"हाँ, दो महीनों से हमारे पैसे नहीं आ रहे... उन्होंने भेजना बंद कर दिया है... इसलिए हम लोग इधर एकदम तंगहाल हैं। हम दोनों ही इधर ट्यूशन पढ़ा रहे हैं... और दोस्तों के भरोसे चल रहे हैं... एक दोस्त ने अपनी पुरानी स्कूटर प्रेजेंट की है... वही स्कूटर जिससे हम यहाँ आए हैं...।"
"... और सर, वो एप्लीकेशन भी मैंने अपनी बेवकूफी में लिख डाला था,'' लड़की ने विक्रम को बताया, "एक्चुअली मैंने सोचा था ऐसा करने से हॉस्टल का किराया बच जाएगा... एक आदमी का...।"
"आप हमारी कंडीशन समझ रहे हैं न...? वी आर वेरी सॉरी... रियली वेरी सॉरी... प्लीज...'', लड़का एक तरह से गिड़गिड़ाने लगा था।
विक्रम चुप था। बिल्कुल खामोश। अपने बड़बोलेपन की आदत के एकदम विपरीत। अपने भीतर ही कहीं डूब गया था वह।
और अचानक वह उठ खड़ा हुआ, "तुम लोग रुकोगे यहीं। मैं अब्भी आया। जाना नहीं कहीं!'' और बाहर निकल गया।
पाँच मिनट के भीतर ही वह लौट आया। उसके हाथों में एक गुलदस्ता था - खासा बड़ा और सुंदर।
उन्हें गुलदस्ता प्रजेंट करते हुए वह खूब जोश से भरा हुआ था, "यार, तुम दोनों ने वाकई प्रेम किया है... सचमुच! मुझे माफ कर देना जो मैं तुम दोनों को गलत समझे रहा। भई मान गए! ये तुम दोनों को मेरी तरफ से!'' और उसने खुश होकर 'इन्कलाब जिंदाबाद' की स्टाइल में हाथ उठाकर नारा लगाया, "मुहब्बत जिंदाबाद'!''
लड़का-लड़की दोनों हैरान! उसे समझने की कोशिश कर रहे थे।
विक्रम सिर्फ इतने पर ही नहीं रुका, उसने कहा, "अभी हम लोग होटल मौर्या चल रहे हैं, वहीं सेलिब्रेट करेंगे!''
और वह उनसे कह रहा था, "देखो, मैं तुम्हारे साथ हूँ। लड़की, तुम मुझे अपना बड़ा भाई समझो। और कैसी भी मदद की जरूरत हो - मुझसे कहना। मुझे बहुत खुशी होगी...।"
और मित्रो, अगले पल मेरे सामने बहुत 'इमोशलन सीन' था।
मैंने देखा कि लड़की विक्रम के कंधे से लगकर रो रही है... एकदम धार-धार! और लड़का उसके पैर छू रहा है...।